मंगलवार, 29 जून 2021

जैन श्रावक के 12 व्रत भाग 3

3. अदत्तादान विरमण अणुव्रत

दरिद्रता, बेकारी, कम आय-अधिक व्यय, चोरों की संगति तथा किसी प्रकार का व्यसन लग जाने पर मनुष्य को चोरी की आदत पड़ जाती है | इससे बचने के लिए किसी कला, सेवानिवृत्ति, खेती-बाड़ी, व्यापार आदि में लग जाना चाहिए | अपना खर्चा आय के अनुसार ही करना चाहिए | धन, धान्य या द्रव्य हेतु किसी का ताला तोड़ना, सेंध लगाना बलपूर्वक छीना-झपटी करना, जेब काटना, किसी को भी मारपीट कर लूट लेना आदि चोरी गिने जाते हैं, इसी तरह किसी की गिरी हुई वस्तु उठाना किसी के घर पर रखा हुआ अथवा भूमि में गड़ा धन निकाल लेना भी चोरी ही है सारांश यह है कि मालिक की सहमति के बिना अधर्म से कोई वस्तु ले लेना चोरी है | 

हानियाँ:- 

चोर का कभी भी भला नहीं होता ना ही चोर कभी धनवान बनता है धन मनुष्य का सहारा है किसी का धन-धान्य व द्रव्य हर लेना उसे घायल करने के समान है जान से मारने पर मनुष्य को कुछ ही क्षण पीड़ा होती है किंतु धन की चोट किसी व्यक्ति अथवा उसके परिवार के व्यक्तियों का जीवन दूभर बना देती है धन बिना जीवन नर्क बन जाता है धन का अपहरण करने वाला केवल धन को ही नहीं लुटता व्यक्ति के जीवन के नष्ट होने का कारण बन जाता है प्राय देखा जाता है कि धन के साथ धर्म-कर्म बुद्धि उत्साह आदि भी चले जाते हैं पारिवारिक जीवन का सहारा होता है | धन का अपहरण संपूर्ण परिवार पर विपदा के बादल फैला देता है धन नाश के दुःख से कई व्यक्ति तो पागल हो जाते हैं कईयों के प्राण तक चले जाते हैं उत्साह के ना रहने से शांति नहीं रहती और धर्म कृत्य में मन नहीं लगता है | मन उद्विग्न रहने से कोई भी कार्य भी ठीक ढंग से नहीं होता है | जीवन नष्ट प्रायः सा हो जाता है | 
 चोरी करने वाला कुख्यात हो जाता है | उसके संबंधी स्वजन भी उसका विश्वास नहीं करते हैं | चोरी के धन का उपयोग चाहे कोई भी करें दंड का भागी तो वही व्यक्ति बनता है जिसने चोरी की है | चोर को इस लोक और परलोक दोनों जगह दंड भुगतना पड़ता है | इस जन्म में विरोध निंदा कैद की सजा देश निकाला और यदा-कदा मृत्यु दंड भुगतना पड़ता है और लोक में नर्क आदि की असह्य वेदना झेलनी पड़ती है यही नहीं आने वाले जन्मों में धन नाश दरिद्रता दुर्भाग्य पराधीनता हस्त बाद ही नेता रोग शोक प्रताप व मृत्यु आदि के दुख बार-बार भुगतने पड़ते हैं |
चोर के सारे गुण छुप जाते हैं वह धिक्कार व उपहास का पात्र बन जाता है | शिकारी के जाल में फंसे हुए हिरण की तरह चोर का मन बस्ती हो अथवा निर्जन वन कभी स्थिर व शांत नहीं रहता है | परोपकार, धर्म उपदेश, श्रवण, देव गुरु की सेवा आदि का विचार तो उसे स्वप्न में भी नहीं आता है | यह स्पष्टतया समझने की बात है कि दूसरों को दुखित कर रुलाकर व कष्ट पहुंचा कर हम जो पाप के बीज बोते हैं वे उगने के पश्चात हमारे लिए कष्टदायी ही बनेंगे | अदत्तादान विरमण अणुव्रत का पालन करने वाला व्यक्ति सबके आदर का पात्र बनता है और विश्वसनीय माना जाता है धन वृद्धि, पदवी आदि के अतिरिक्त स्वर्गादिक के सुख इस व्रत के पालने के मीठे फल है |

अचौर्य-व्रत पालन की विधि :- धर्मात्मा गृहस्थ को जड़ एवं चेतन दोनों प्रकार के सर्व पदार्थों की चोरी का त्याग करना चाहिए | यहां तक कि वन की वनस्पति, तालाब, कूप, नदी नाले के पानी आदि जिन पर अपना स्वामित्व नहीं है, बिना आज्ञा नहीं लेने चाहिए मालिक की आज्ञा बिना कोई वस्तु उठाना, ताला तोड़ना, दीवार फांदना, सेंध लगाना, डाका डालना, मार्ग में लोगों को लूटना, कर-चूंगी की चोरी, जेब काटना, धोखा देना, गिरी पड़ी वस्तु उठाना इत्यादि सब तरह की चोरी का प्रत्येक श्रावक को त्याग करना चाहिए |

अचौर्य व्रत के अतिचार
(1) स्तेना हृत :- जानबूझकर स्वस्ति मानकर चोर द्वारा लाई वस्तु खरीदना अथवा चोर का माल अपने पास रखना |
(2) स्तेन प्रयोग :- चोर को चोरी करने की दुर्मति देना या उसे चोरी करने को प्रोत्साहित करना, उसकी सहायता खाने-पीने, अस्त्र-शस्त्र द्वारा करना उसके नाम की सराहना करना, चोर का उत्साह बढ़ाना आदि चोरी नहीं होने पर भी चोरी करने के उद्देश्य की है |
(3) माल में मिलावट :- नए-पुराने माल को मिलाकर नए भाव में बेचना खरे-खोटे की मिलावट करना असली माल दिखाकर ग्राहक को नकली माल देना | इस अत्याचार के लगने से धर्म और विश्वास दोनों की हानि होती है | व्यापार धंधे के बिगड़ने का भय भी रहता है |
(4) विरुद्ध राज्यगमन :- राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र रचना, निश्चित चीजों का छुपे तौर पर व्यापार करना | इनसे सरकारी दंड मिलने की आशंका रहती है |
(5) झूठे नाप तोल रखना :- व्यापार में लेन-देन की प्रवृत्ति में नकली माप-तोल का उपयोग करना | लेना अधिक, देना कम | हिसाब कम ज्यादा बताना, अपने साझीदार से धोखा करना आदि इस व्रत के पांचवें अतिचार है | इस अत्याचार के लगने से यश और धर्म दोनों की हानि होती है | विचारों पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे अशुभ कर्मों का बंध होता है धर्मनिष्ठ गृहस्थ को इस व्रत के पांचों अतिचारों से पूर्ण रूपेण बचना चाहिए |

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