शनिवार, 3 जुलाई 2021

जैन श्रावक के 12 व्रत भाग 4

4. स्वदारा संतोष परस्त्रीगमन विरमण अणुव्रत


पूर्णरूपेण वीर्य की रक्षा करना त्यागी मुनि भगवंतों का पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत है | अपनी धर्मपत्नी मात्र पर संतोष रखना गृहस्थों का ब्रह्मचर्य व्रत है | स्व नारी पर संतोष करने वाले व्यक्ति को यति-सम माना गया है परस्त्री को कभी बुरे भाव से नहीं देखना चाहिए अपने से बड़ी स्त्री को मातृवत, हम उम्र को बहन तथा छोटी स्त्री को पुत्रीवत समझना चाहिए इसी तरह नारी भी अपने पति पर ही संतोष कर अन्य पुरुषों को पवित्र दृष्टि से देखें अन्य पुरुषों को पिता, भ्राता व पुत्रवत समझना यह श्राविका का ब्रह्मचर्य व्रत है |


ब्रह्मचर्य के गुण :- ब्रह्मचर्य के बल से योगेश्वर सहज ही आत्म स्वरूप को पा जाते हैं | इस व्रत का पालन वीर पुरुषों का कार्य है | मन, वचन और काया से ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला पुरुष तीनो लोक में पूजनीय बनता है | बल, कांति और स्वच्छ जीवन ब्रह्मचर्य पर ही आश्रित है | ब्रह्मचर्य गुण हीन व्यक्ति के अन्य गुणों की कोई गणना नहीं है | इंद्रियासक्त निर्बल पुरुष का ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते हैं | विषय वासना बुरे विचारों व कुसंगति से ही उत्पन्न होती है अतः ब्रह्मचारियों को कुविचार व कुसंगति से नितांत बच कर रहना चाहिए | पूर्व में देखी सुनी अथवा अनुभव में आई हुई वासना युक्त बातों के विचारने से कुविचार उत्पन्न होते हैं ब्रह्मचारी पुरुषों को  स्त्रियों से तथा स्त्रियों को पुरुषों से दूर रहना चाहिए, जहां एकांत हो वहां स्त्री पुरुष साथ ना रहे उपरोक्त बातों का ध्यान रखकर ही ब्रह्मचर्य का पूर्णरूपेण पालन किया जा सकता है | 


ब्रह्मचारी स्त्री पुरुष पर्वत से भी महान व व्यभिचारी राख से भी निकृष्ट है | जब अग्नि अपने यथार्थ रूप में होती है तो हिंसक भयानक पशु तक उससे डरते हैं | हवन, यज्ञ, पूजन, आरती आदि शुभ व धार्मिक कृत्य होते हैं |ज्वलित अग्नि को देवता वत पूजा जाता है किंतु जब अग्नि ज्वालन गुण रहित हो जाती है तब राख कहलाती है और राख पर शुद्र जन्तु तक पैर लगाते हैं राख से झूठे बर्तन साफ किए जाते हैं गंदगी को ढका जाता है यही अवस्था ब्रम्हचर्य हीन मनुष्य की होती है, उसका बड़प्पन नष्ट भ्रष्ट हो जाता है, व्यभिचारी व्यक्ति अपमान का पात्र बनकर किए पापों के कारण दुर्गति पाता है |

विषय वासना व इंद्रियासक्ति का स्वाद ''किम्पाक'' के फल सदृश है, ''किम्पाक'' फल सुंदर, सुगंधित व स्वादिष्ट होता है किंतु जो ही गले के नीचे उतरता है, आंतों को काट देता है और तीव्र वेदना प्रदान कर व्यक्ति को मार देता है इसी तरह विषय वासनाओं से क्षणिक सुख व आनंद मिलता है किंतु प्रणाम अत्यंत हानिकारक होता है विषय वासनाओं के वशीभूत व्यक्ति धर्म-कर्म, मान आदि होकर निर्लज्ज बन जाता है वह विभिन्न रोगों का शिकार बनता है विषय भोग की अधिकता से निर्बलता, भीरुता, यौन-रोग आदि भयानक रोग घेर लेते हैं | व्यभिचारी की देह अंत में सड़ गल जाती है | दुर्गति में पड़कर अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं | 

शास्त्रों में लिखा है कि योनि क्षेत्र में असंख्य सूक्ष्माति सूक्ष्म जीव रहते हैं,  मैथुन क्रिया द्वारा वे जीव नष्ट हो जाते हैं और हिंसा का दोष लगता है जो लोग भूख द्वारा इच्छाओं का शमन करना चाहते हैं, वह भूल में पड़े हुए हैं| प्रज्वलित अग्नि को घी अथवा ईंधन डालकर शांत नहीं किया जा सकता है, जिस तरह ईंधन व घी के डालने से अग्नि भड़क उठती है तदैव भोग मैं पढ़ने से लोगों की लालसा और बढ़ती है अग्नि दबाने से ही शांत होती है उसी तरह शुभ विचारों से दबाकर ही हम वासनाओं को शांत कर सकते हैं तनिक विचार कीजिए कि जिस दुराचारिणी नारी ने अपने पति से विश्वासघात कर आप से प्रेम किया है, क्या वह आपकी हो सकेगी ? कदापि नहीं | ऐसी लंपट नारी न जाने कब किसी और को अपने मोह जाल में फांस आपको धोखा दे दे अथवा आपको विपत्ति में पटक कर दूर से ही तमाशा देखने लग जाये | व्यभिचार के अनन्य बुरे परिणाम यथा प्राणों का भय चक्र का विरोध धरना शादी है लंपट वृत्ति हमारी शक्ति सुंदरता और यश को हानि पहुंचाने वाली और आपसी विरोध में मनुष्य को पंप आने वाली है पर स्त्री गमन कारावास आदि अनेक आपत्तियों का कारण रूप है मरणोपरांत व्यभिचारी जीवन नर्क गामी बनता है और अनेकों कष्ट होता है हम अपनी स्त्री कन्या बहन आदि की जिसको से रक्षा करना चाहते हैं किंतु हमारी अपनी दृष्टि बुरी होती है विचार है क्या हमारी बुरी दृष्टिकोण बहू बेटियों के स्वजनों को बुरी नहीं लगेगी हमें बुरी लगने वाले यह बात अवश्य में उन्हें भी बुरी नहीं आता दृष्टि को पवित्र रखना अत्यंत जरूरी है |

  बुद्धिमान तथा धर्मात्मा गृहस्थों को यथा सम्भव अपनी स्त्री से सहवास में भी संयम संतोष बरतना चाहिए, ताकि पूर्ण ब्रह्मचर्य की शीघ्र प्राप्ति हो सके | वैश्या व परस्त्रियों का तो स्वप्न में भी ध्यान नही करना चाहिए | कई व्यक्ति सोचते है कि जैसे तालाब के जल का हरेक व्यक्ति उपयोग कर सकता है, उसी तरह नगरवधुओं, वैश्याओं का जन्म भी हरेक व्यक्ति के लिए है | अतः उन से मैथुनाचार में कोई हानि नही है | वे तो दाम देने पर मिलने वाले सुख है अतः इसमे किसी तरह का भय भी नही है | किंतु ऐसा सोचने व आचरण करने वाले व्यक्ति अज्ञानी ही नही किन्तु मूर्ख भी है |





मंगलवार, 29 जून 2021

जैन श्रावक के 12 व्रत भाग 3

3. अदत्तादान विरमण अणुव्रत

दरिद्रता, बेकारी, कम आय-अधिक व्यय, चोरों की संगति तथा किसी प्रकार का व्यसन लग जाने पर मनुष्य को चोरी की आदत पड़ जाती है | इससे बचने के लिए किसी कला, सेवानिवृत्ति, खेती-बाड़ी, व्यापार आदि में लग जाना चाहिए | अपना खर्चा आय के अनुसार ही करना चाहिए | धन, धान्य या द्रव्य हेतु किसी का ताला तोड़ना, सेंध लगाना बलपूर्वक छीना-झपटी करना, जेब काटना, किसी को भी मारपीट कर लूट लेना आदि चोरी गिने जाते हैं, इसी तरह किसी की गिरी हुई वस्तु उठाना किसी के घर पर रखा हुआ अथवा भूमि में गड़ा धन निकाल लेना भी चोरी ही है सारांश यह है कि मालिक की सहमति के बिना अधर्म से कोई वस्तु ले लेना चोरी है | 

हानियाँ:- 

चोर का कभी भी भला नहीं होता ना ही चोर कभी धनवान बनता है धन मनुष्य का सहारा है किसी का धन-धान्य व द्रव्य हर लेना उसे घायल करने के समान है जान से मारने पर मनुष्य को कुछ ही क्षण पीड़ा होती है किंतु धन की चोट किसी व्यक्ति अथवा उसके परिवार के व्यक्तियों का जीवन दूभर बना देती है धन बिना जीवन नर्क बन जाता है धन का अपहरण करने वाला केवल धन को ही नहीं लुटता व्यक्ति के जीवन के नष्ट होने का कारण बन जाता है प्राय देखा जाता है कि धन के साथ धर्म-कर्म बुद्धि उत्साह आदि भी चले जाते हैं पारिवारिक जीवन का सहारा होता है | धन का अपहरण संपूर्ण परिवार पर विपदा के बादल फैला देता है धन नाश के दुःख से कई व्यक्ति तो पागल हो जाते हैं कईयों के प्राण तक चले जाते हैं उत्साह के ना रहने से शांति नहीं रहती और धर्म कृत्य में मन नहीं लगता है | मन उद्विग्न रहने से कोई भी कार्य भी ठीक ढंग से नहीं होता है | जीवन नष्ट प्रायः सा हो जाता है | 
 चोरी करने वाला कुख्यात हो जाता है | उसके संबंधी स्वजन भी उसका विश्वास नहीं करते हैं | चोरी के धन का उपयोग चाहे कोई भी करें दंड का भागी तो वही व्यक्ति बनता है जिसने चोरी की है | चोर को इस लोक और परलोक दोनों जगह दंड भुगतना पड़ता है | इस जन्म में विरोध निंदा कैद की सजा देश निकाला और यदा-कदा मृत्यु दंड भुगतना पड़ता है और लोक में नर्क आदि की असह्य वेदना झेलनी पड़ती है यही नहीं आने वाले जन्मों में धन नाश दरिद्रता दुर्भाग्य पराधीनता हस्त बाद ही नेता रोग शोक प्रताप व मृत्यु आदि के दुख बार-बार भुगतने पड़ते हैं |
चोर के सारे गुण छुप जाते हैं वह धिक्कार व उपहास का पात्र बन जाता है | शिकारी के जाल में फंसे हुए हिरण की तरह चोर का मन बस्ती हो अथवा निर्जन वन कभी स्थिर व शांत नहीं रहता है | परोपकार, धर्म उपदेश, श्रवण, देव गुरु की सेवा आदि का विचार तो उसे स्वप्न में भी नहीं आता है | यह स्पष्टतया समझने की बात है कि दूसरों को दुखित कर रुलाकर व कष्ट पहुंचा कर हम जो पाप के बीज बोते हैं वे उगने के पश्चात हमारे लिए कष्टदायी ही बनेंगे | अदत्तादान विरमण अणुव्रत का पालन करने वाला व्यक्ति सबके आदर का पात्र बनता है और विश्वसनीय माना जाता है धन वृद्धि, पदवी आदि के अतिरिक्त स्वर्गादिक के सुख इस व्रत के पालने के मीठे फल है |

अचौर्य-व्रत पालन की विधि :- धर्मात्मा गृहस्थ को जड़ एवं चेतन दोनों प्रकार के सर्व पदार्थों की चोरी का त्याग करना चाहिए | यहां तक कि वन की वनस्पति, तालाब, कूप, नदी नाले के पानी आदि जिन पर अपना स्वामित्व नहीं है, बिना आज्ञा नहीं लेने चाहिए मालिक की आज्ञा बिना कोई वस्तु उठाना, ताला तोड़ना, दीवार फांदना, सेंध लगाना, डाका डालना, मार्ग में लोगों को लूटना, कर-चूंगी की चोरी, जेब काटना, धोखा देना, गिरी पड़ी वस्तु उठाना इत्यादि सब तरह की चोरी का प्रत्येक श्रावक को त्याग करना चाहिए |

अचौर्य व्रत के अतिचार
(1) स्तेना हृत :- जानबूझकर स्वस्ति मानकर चोर द्वारा लाई वस्तु खरीदना अथवा चोर का माल अपने पास रखना |
(2) स्तेन प्रयोग :- चोर को चोरी करने की दुर्मति देना या उसे चोरी करने को प्रोत्साहित करना, उसकी सहायता खाने-पीने, अस्त्र-शस्त्र द्वारा करना उसके नाम की सराहना करना, चोर का उत्साह बढ़ाना आदि चोरी नहीं होने पर भी चोरी करने के उद्देश्य की है |
(3) माल में मिलावट :- नए-पुराने माल को मिलाकर नए भाव में बेचना खरे-खोटे की मिलावट करना असली माल दिखाकर ग्राहक को नकली माल देना | इस अत्याचार के लगने से धर्म और विश्वास दोनों की हानि होती है | व्यापार धंधे के बिगड़ने का भय भी रहता है |
(4) विरुद्ध राज्यगमन :- राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र रचना, निश्चित चीजों का छुपे तौर पर व्यापार करना | इनसे सरकारी दंड मिलने की आशंका रहती है |
(5) झूठे नाप तोल रखना :- व्यापार में लेन-देन की प्रवृत्ति में नकली माप-तोल का उपयोग करना | लेना अधिक, देना कम | हिसाब कम ज्यादा बताना, अपने साझीदार से धोखा करना आदि इस व्रत के पांचवें अतिचार है | इस अत्याचार के लगने से यश और धर्म दोनों की हानि होती है | विचारों पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे अशुभ कर्मों का बंध होता है धर्मनिष्ठ गृहस्थ को इस व्रत के पांचों अतिचारों से पूर्ण रूपेण बचना चाहिए |

शनिवार, 26 जून 2021

जैन श्रावक के 12 व्रत भाग 2

(2) मृषावाद विरमण अणुव्रत

यह व्रत श्रावक के भाषा प्रयोग से संबंधित है | हर प्राणी से हमे मधुर वचनों द्वारा बातचीत करनी चाहिए | और इस तरह बोलना चाहिए जिससे दूसरों का कल्याण हो | कुपथ्य से जैसे रोग बढ़ते है वैसे ही झूठ बोलने से, शत्रुता, विरोध, अपयश, अविश्वास आदि दोष उत्पन्न होते है | बुरे व कटु शब्द मन को छेदने वाले होते है और प्राणी को जीवन भर सालते रहते है | आग से दग्ध वट वृक्ष वर्षा ऋतु में पुनः हरा भरा हो सकता है किंतु वाग-बाण से विक्षत मनुष्य का घाव कभी भी नही भर पाता है | सच्चे, मधुर और प्रिय लगने वाले शब्दों की संसार मे कमी नही है | मधुर बोलने में अधिक परिश्रम नही करना पड़ता है, उन पर कुछ रुपये व्यय नही करने पड़ते है | मधुर शब्द कही बाहर से भी नही मंगवाने होते है | जब मधुर शब्द इतने सुलभ है तो ह्रदय दाहक, क्रूर व कटु वचन या अपशब्द असमय, अकारण, बोल कर वाक-बाणो से अन्य प्राणियों को घाव लगाना कहां की मनुष्यता है ? बिना शस्त्र की यह जीव हत्या करना एक महान अवगुण है |

 हम चाहे तो इस मानव देह को मुक्ति प्राप्ति का साधन बना सकते है | मनुष्य देह के अतिरिक्त मुक्ति प्राप्ति के लिए कोई और गति नही है | अतः ऐसे अमूल्य मानव भव को पाकर जो पुरुष कर्त्तव्य च्युत हो जाये, सत्य त्याग कर झूठ व कटु बोले तो पता नही वे फिर किस जन्म में अपना आत्मोत्थान करेंगे | कपट भरे, झूठे व अशुभ वचन बोलने वालों से तो गूंगे ही भले है, वे अपनी जिव्हा से अपनी तथा अन्य प्राणियों की हानि तो नही करते है | जिनके मुख से झूठे व कटु शब्दों की दुर्गंध युक्त नाली सदा बहती रहती है उनको दातुन करते, स्नान करते देख ज्ञानी जन हंसा करते है |

 वे लोग धन्य है जिनके निर्मल ह्रदय से निकले अमृत तुल्य वचन दुसरो के चित्त को शांति पहुंचाते है | शुभ्र चांदनी चन्दन, मालती व केवड़े के सुमन भी उतनी शीतलता नही दे पाते है जितनी शीतलता कर्ण-प्रिय मधुर व सत्य वचन हमे प्रदान करते है | सत्यवादी मानव विश्व में चंद्रवत प्रकाश एवं शांति का प्रसार करते है | सत्यवादी का यशोगान स्वर्ग के देव भी करते है | यम, नियम, विद्या, विनय, चरित्र और ज्ञान आदि उत्तम गुणों का आधार यह सत्यव्रत ही है | सत्यव्रती व सत्यनिष्ठ महापुरुषों को भूत, प्रेत, राक्षस, सर्प, सिंह आदि हिंसक जीव भी कोई कष्ट नही पहुंचा सकते है किन्तु वे उनके आगे नतमस्तक हो विनम्र भाव से खड़े हो जाते है | गूँगापन, बधिरत्व, पागलपन, मूढ़ता, जीभ तथा मुख के रोग झूठ बोलने के फल है | अतः झूठे, कटु, अप्रिय एवं दूसरों को हानि पहुंचाने वाले वचनों का सर्वथा त्याग करना चाहिए | यदि किसी कारण वश कोई गृहस्थ नितांत सत्य बोलने में असमर्थ हो तो आगे कहे पांच मोटे असत्यों को त्यागने की प्रतिज्ञा जरूर करनी चाहिये:-1.कन्या व बालक के रिश्ते से संबंधित बातों का 2. पशुओं के क्रय विक्रय में 3.भूमि संबंधी 4. धरोहर 5. झूठी गवाही |

1.कन्या संबंधी असत्य:- प्राय कन्या बालक के वैवाहिक संबंध कराने हेतु असत्य बातों का सहारा लिया जाता है वह उचित नहीं है संबंध कराने की दृष्टि से कन्या या बालक का झूठा गुणगान करना आयु को घटा बढ़ाकर बतलाना आकृति गुण विद्या व स्वरूप आदि के संबंध में झूठ बोलना सर्वथा अनुचित है उसी तरह संबंधों को रोकने के लिए गुणों को छुपाकर अवगुणों को प्रकट करना वह झूठा वर्णन करना भी पाप है वैवाहिक संबंध कोई साधारण बात नहीं है किंतु जीवन भर का सौदा है असत्य व गलत बातों के सहारे जो संबंध करवाए जाते हैं असलियत खुलने पर प्रायः वे वैमनस्य व विरोध के कारण रूप बनते है | और इसके दोष का सर्वप्रथम भागी वह असत्य बातें कहकर संबंध करवाने वाला या अड़चन डालने वाला व्यक्ति ही है शास्त्रकारों ने तो त्यागी पुरुषों को ऐसे सांसारिक संबंध करने करवाने से दूर ही रहने को कहा है उनके व्रत में इस का निषेध किया गया है श्रावक, गृहस्थ को भी यथासंभव इनसे बचना चाहिए गृहस्थ होने के नाते वह पूर्णरूपेण इन नाते-रिश्तो को करवाने से दूर नहीं रह सकता है अतः इन रिश्तो को करवाते समय पूर्ण सत्य का सहारा लेकर बालक कन्या के संबंध में कम ज्यादा बातें नहीं करनी चाहिए सावधानी रख सत्य बातें कहकर संबंध करवाने चाहिए | कई नासमझ माता-पिता तथा बिचौलिए दलाल अपने स्वार्थवश बेमेल विवाह करवा कर कन्या, बालक के जीवन से भयंकर खिलवाड़ करते हैं वह उनका जीवन नष्ट कर देते हैं इससे वंश की अपकीर्ति होती है और इन परिणितों के आह से समाज को हानि पहुंचती है यह झूठ पर आधारित संबंध आर्त-ध्यान, रौद्र-ध्यान अवनति के कारण बनते हैं 

2.पालतू पशुओं संबंधित असत्य:- गाय भैंस आदि पालतू पशुओं क्रय-विक्रय में भी झूठ बोलना उचित नहीं है | उनकी आयु, गुण-दोष, चाल-ढाल, दूध-घी आदि को बढ़ा चढ़ाकर बताना पाप है यह झूठ अनेकों अनर्थों यथा बछड़े का भूखा रहना, पशुओं की मारपीट आदि के कारण रूप बनते हैं | इसी तरह घोड़े बेल आदि के बोझ उठाने व बल के संबंध में लालच में आकर स्वार्थ वश असत्य बातें नहीं करनी चाहिए मुक पालतूपशु इस संबंध में कुछ बोल नही सकते हैं किंतु पुराने मालिक के झूठ के कारण उन्हें अपने नए मालिक के अनेकों अत्याचार व प्रताड़नाएं सहनी पड़ती है | कभी-कभी तो अत्याचार इतनी क्रूरता से किए जाते हैं कि पशुओं की मृत्यु तक हो जाती है असलियत खुलने पर लेनदेन करने वालों में झगड़ा हो जाता है इससे दोनों पक्षों की हानि व निंदा होती है अतः पालतू पशुओं के क्रय-विक्रय में लिए जाने वाले असत्य वचनों से सर्वथा नितांत दूर रहना चाहिए |

3. भूमि सम्बन्धी असत्य :-अपनी हो या पराई, भूमि की लेनदेन के समय उसके गुण दोषों का, नाम व सीमा का सत्य वर्णन ही करना चाहिए | इस संबंध में झूठ बोलने से शत्रुता और झगड़े उत्पन्न होते हैं और न्यायालयों की शरण लेनी पड़ती है और धन, समय का नुकसान होता है यही नहीं सरकारी अधिकारियों की अनुचित चापलूसी करनी पड़ती है कभी-कभी तो झगड़े करने वाले तो परलोक सिधार जाते हैं और भूमि संबंधी झगड़े चलते रहते हैं भूमि शब्द में जमीन, क्षेत्र, मकान, व्यापार, वाणिज्य, बाग बगीचा आदि समाए हैं | उपरोक्त सब वस्तुओं की लेनदेन में झूठ से हमेशा बचना चाहिए अर्थात कभी झूठ नही बोलना चाहिए |

4. अमानत धरोहर संबंधी असत्य:-कोई भी व्यक्ति हमें धर्मात्मा व भला समझ अपना धन, द्रव्य व अन्य वस्तुओं को धरोहर रूप में बिना लिखा पढ़ी के रख कर जाता है जब जरूरत पड़ने पर वह अपने धन आदि वस्तुएं मांगे और हम लालच से उसे झूठा बतावे और गवाही मांगे तो यह कितना नीच कृत्य है | धरोहर रखने वाले का माल गया और समाज में झूठा साबित हुआ, कितने कष्ट उठाकर उसने धन कमाया था तथा पता नहीं किस कठिन समय के लिए उसने उसे बचा कर हमारे पास रखा था लालच व पराया धन दबाने की हमारी नीति से उसकी आत्मा को कष्ट होता है उसके परिवार जन उसके संबंध में क्या सोचेंगे उस व्यथित आत्मा की आह हमारी जरूर दुरावस्था करेगी | धरोहर दबाना एक महान पाप है, अतः इस कुकर्म से गृहस्थ को सदा बच कर रहना चाहिए महापुरुषों की आज्ञा है कि यदि कोई पुरुष धरोहर रखने के पश्चात मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो वह धरोहर उसके उत्तराधिकारियों को बुलाकर सुपुर्द करनी चाहिए, यदि कदाचित ऐसा ना हो सके तो पंच महाजनों को सारी बात बता कर उस धन का सदव्यय किसी धार्मिक अथवा सार्वजनिक कार्य में करना चाहिए धरोहर को कभी भी नहीं दबानी चाहिए |

5. असत्य साक्षी(गवाही) देना:- झूठी साक्षी देना महान अपराध और पाप है, अपने स्वार्थ, लोभ व अभिमान के वशीभूत हो अथवा किसी के कहने पर धन अथवा जीवन की रक्षा के लिए भी न्यायालय या पंचायत के समक्ष झूठ नहीं बोलना चाहिए | हमें अपनी जानकारी के अनुकूल पूछने पर सत्य बातों का ही ब्यौरा देना चाहिए | यदि कारणवश सत्य बोलना उचित ना लगे तो मौन रहना चाहिए | किंतु असत्य भाषण व झूठी गवाही यह एक ऐसा कलंक है जिसे हम कभी भी नहीं हो सकते हैं | 

 इस प्रकार इन पांच महा असत्यों का सर्वथा त्याग करके, अन्य छोटे-मोटे झूठ से भी बचे रहना चाहिए | हंसी मखोल में अपनी झूठी बड़ाई करना किसी की मानहानि व अपयश हेतु उस पर झूठा कलंक लगाना आदि छोटे-मोटे असत्य वचनों से बचे रहना चाहिए | अपनी मानवता, धर्म व कुल की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए हमें कभी भी ऐसे वचन नहीं बोलने चाहिए जो दूसरों के दुख के व अपने कर्म बंधन के कारण रूप बने | सत्यव्रत के पालन से लोगों का विश्वास, मान तथा कार्य में सफलता मिलती है | व्यापार की वृद्धि होती है वह प्रेम भाव बढ़ता है सत्य भाषी के वचन व व्यवहार का सम्मान किया जाता है, सत्य वक्ता के वाणी में ऐसी अलौकिक शक्ति उत्पन्न होती है जिससे उसके मुख से निकले वचन पूर्ण हो जाते हैं | 

  उपरोक्त इहलौकिक लाभों के अलावा सत्य भाषी होने के कारण धर्म की प्राप्ति होती है और हम भवोभव में सुखी होते हैं | सत्यव्रत हमारे पापों का नाश करने वाला एवं कुकर्मो से हमें दूर रखने वाला, अशुभ कर्मों की निर्जरा में सहायक व पुण्य की प्राप्ति में साधन रूप है | सत्यव्रत के पालन से हम जन्म जन्मांतर में सुख भोगते हुए अंत में अजर,अमर, मुक्ति सुख को प्राप्त करते हैं |  श्रावक के मृषावाद विरमण अणुव्रत में अधोलिखित पांच अतिचार लगने की संभावना रहती है :-

1. बिना वजह दोषारोपण:- बिना वजह व बिना कारण किसी पर शंका करना या उन पर षड्यंत्रादि का अभियोग लगाना, उन पर चोरी अथवा अन्य दुष्कृत्य का कलंक लगाना आदि सत्य व्रत के प्रथम अतिचार है | ये भयंकर हानिकर्त्ता है अतः श्रावक को इनसे बचकर रहना चाहिए |

2. गुप्त बात प्रकटीकरण:- किसी की कोई गुप्त बात जो हमें पता हो या बताई गई हो को सर्वसाधारण में प्रकट करना सत्य व्रत का दूसरा अतिचार है | इससे संबंधित व्यक्ति की हानि होती है और हमारी उससे शत्रुता हो सकती है | 

3. स्व-स्त्री मंत्र भेद:- अपनी स्त्री तथा घर की अन्य बातें मित्रों व अन्य लोगों के समक्ष प्रकट करना अतिचार है | ऐसा करने पर स्त्री को तथा घर के सदस्यों को शर्म से झुकना पड़ता है, घर का भेद खुल जाता है | आपसी वैमनस्य बढ़ता है और अन्य लोग गैर लाभ उठाते हैं |

4. झूठी सलाह:- किसी को कष्ट में डालने के लिए जानबूझकर झूठी सलाह देना मोक्ष-मार्ग व आत्म भाव के विरुद्ध उपदेश देकर उसे पाप कर्म में प्रवृत्त करना सत्यव्रत का चतुर्थ अतिचार है |

5. कूट-लेख:- कुबुद्धि के वशीभूत हो झूठे लेख व पत्र बनाना सत्यव्रत का पंचम अतिचार है | कई बार हम ऐसे लेख लिखकर यह सोच लेते हैं कि हमारा तो झूठ बोलने का त्याग है लिखने का नहीं | यदि कोई नासमझ सच्ची बात को नहीं समझ सके तो इसमें हमारा क्या दोष है | लेकिन यह हमारी कुबुद्धि का पापमय प्रयोग है | इससे हमारे सत्यव्रत को हानि ही नहीं पहुंचती, बल्कि व्रत भंग की भी संभावना रहती है |

उपरोक्त पांच अतिचारों से बचने की कोशिश करते हुए गृहस्थ को सत्यव्रत का पालन करना चाहिए |

3. अदत्तादान विरमण अणुव्रत


सोमवार, 16 सितंबर 2019

जैन श्रावक के 12 व्रत भाग 1

जैन धर्म असंख्य वर्षो से संसार में चला रहा है | जैन धर्म में तीर्थंकर भगवान ने दो प्रकार के धर्म को प्रतिपादित किया -1. सर्व-विरति (जो दीक्षा लेकर साधू साध्वी बनते हे अर्थात संसार को त्याग देते है कंचन, कामिनी के त्यागी) 2. देश विरति (संसार में रहते हुए धर्म आराधना करते है इन्हे श्रावक-श्राविका बोलते हैइस प्रकार से श्रावक धर्म में 12 व्रत का पालन सभी जैन धर्म के अनुयायियों को करना चाहिये |


श्रावक के 12 व्रत इस प्रकार से है -
(1) स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत  (2) स्थूल मृषावाद विरमण व्रत (3) स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत (4) स्थूल मैथुन विरमण व्रत (5) स्थूल परिग्रह विरमण व्रत (6) स्थूल दिक परिमाण व्रत (7) स्थूल भोगोपभोग विरमण व्रत (8) स्थूल अनर्थदण्ड विरमण व्रत (9) सामायिक करण व्रत (10) देशावगाशिक व्रत (11) पौषध व्रत (12) अतिथि संविभाग व्रत

उपरोक्त  बारह व्रतों के तीन भाग किये गए है | प्रथम पांच को अणुव्रत अगले तीन को गुणव्रत व अंतिम चार शिक्षा व्रत कहलाते है | ये अणुव्रत साधुभगवन्तों द्वारा पाले जाने वाले पांच महाव्रतों से लघु है  व सरल है अतः इन्हें अणुव्रत कहते है | अगले तीन व्रत इन पांच अणुव्रतों के सहायक व उनमें दृढ़ता लाने में सक्षम है, अतः वे गुणव्रत कहलाते है | अंतिम चार व्रत के पालन से हमारी आत्मा को उत्तम शिक्षा प्रदान करते है, अतः इन्हें शिक्षाव्रत कहा गया  है | धन का धर्म-मार्ग पर सद्व्यय करने में अतिथि संविभाग व्रत का सहारा लेना चाहिये |
   बारह व्रत ग्रहण करते समय श्रावक को सर्व विरति साधू मार्ग की प्राप्ति की भावना रखनी चाहिये | यही नहीं उसे निम्नलिखित चार पुरुषार्थों को आत्मा में पनपाने चाहिये : 1. मन, वचन व काया को नियमित करने हेतु विचारों को अशुभ क्रियाओं से हटाकर शुभ क्रियाओं की ओर प्रवत्त करना |
2. विषय वासनाओं का त्याग कर शुभ भावनायें करना | 3. पूर्व अनुबंधित कर्मों की निर्जरा व नये कर्म बंधन को रोकना |  4. यदि नये कर्म उत्पन्न हो रहे हो तो उन पर शुभ प्रभाव |
  बारह व्रतों में :-

(1) स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत

इसे स्थूल अहिंसा व्रत भी कहते है, भगवान् महावीर का आदेश है कि किसी भी जीव की हिंसा न की जाये | जैसे हमें अपना जीवन प्रिय है, वैसे ही हर प्राणी को अपना जीवन प्रिय है | जब हम सदैव सुखी रहना चाहते है तो अन्य प्राणियों को दु:खी करने का हमें क्या अधिकार है | शरीर में कहीं छोटे से घाव के लगने पर या किसी अंग के कटने मात्र से हमारी कैसी दयनीय स्थिति हो जाती है तो हिंसा से अन्य प्राणियों को कितना असहनीय दर्द होता होगा | जब हम जीना चाहते है तो दूसरों के प्राण लेने का हमे क्या अधिकार है, स्मरण रहे जब तक हमारी अन्य जीवों को मारने की प्रवृति जारी है, तब तक हमे भी मरना ही पड़ेगा | अन्य प्राणियों को कष्ट देकर सुख की आशा करना बबूल बो कर आम की आशा करने के जैसी है | जैसी करनी वैसी भरनी | जैसा दान वैसा फल |अतः अन्य प्राणियों के भय को दूर करें ताकि हमारा अपना भय दूर हो जाए |

        जो दूसरों की रक्षा करते है तथा सुख पहुंचाते है, वास्तव में वे अपनी ही रक्षा करते है  | वे अपने लिए सुख-शान्ति के बीज बोते है | जो व्यक्ति दूसरों को मारता है वह स्वयं भी मरता है आम, लीची आदि मीठे फलों के बीज लगाने से मीठे फल मिलते है | बेरी, कीकर ओर नीम के वृक्ष रोपने पर कांटेदार तथा कड़वे फल ही प्राप्त होते है, कहा भी गया है  कि " रोपे बिरवा आक का, आम कहाँ से खाए " | अतः जैसी फसल उगायेंगे, वैसे ही फल घर ला सकेंगे | यह विश्व का शाश्वत नियम है | अतः  अन्य जीवात्माओं के प्रति किये गये अच्छे-बुरे व्यवहार का प्रतिफल प्रकृति हमें देगी | हृष्ट पुष्ट बलवान बनकर जो मानव दुसरों को सताता है, उससे तो उसका लूला, लंगड़ा या अपाहिज होना ही अच्छा है |
        इस बारे में एक पुरानी कहावत है - "दुर्बल को न सताइये, मोटी वाकी हाय | मुई खाल के स्वास सों, सार भस्म हो जाय" || अर्थात अत्याचार मत करिये, दुःखी की आह अत्याचारी  को भस्म कर देती है, बर्बाद कर देती है, अतः धर्मात्मा श्रावक को निर्दयता का त्याग करके ही धर्म आराधना करनी चाहिए बिना दया, करुणा के की गई देवगुरु की पूजा, दान, तप, शास्त्र श्रवण तथा तीर्थ-यात्रा आदि सभी शुभ कर्म व्यर्थ है, कई लोग अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति करने और अपने दुःख दूर करने हेतु काल्पनिक देवी-देवताओं के समक्ष बिचारे अवाक पशुओं की बलि चढ़ाते है | यह बलि योग्य नहीं है और कई दुःखों की कारण रूप बनती है | ऐसे ही अनेको निःसंतान मूर्ख वंश परम्परा को चलाने हेतु मूक पशुओं का वध करते हैं | किन्तु वे वंश परम्परा की उन्नति की जगह वंश की अवनति के तथा हानि के कारण रूप बनते है |
        अहिंसा व्रत के पालन के फलस्वरूप हमें सर्व प्रकार के सुख, बल, उत्साह, दीर्घायु, स्वास्थ्य व सुंदरता प्राप्त होती है | यही नहीं मान, प्रतिष्ठा, सर्व इन्द्रियों की असीम शक्ति, सुंदर देश, अच्छा परिवार, उच्च कुल व धन-धान्य की समृद्धि की प्राप्ति भी अहिंसा व्रत के पालन के फलस्वरूप ही मिलती है |
       अन्याय, अत्याचार, क्रूरता के कारण अंधता-लंगड़ा, लूलापन, अनेको रोग, शोक, परिताप, निर्बलता, अभव्य शरीर, पराधीनता, अशुभप्रदेश, नीच कुल, बुरा परिवार, अल्पायु, प्रिय वियोग तथा विभिन्न कष्टों की प्राप्ति होती है आज हम जो तरह-तरह के दुखों व क्लेशों से जकड़े है, यह किसी जन्म में हमारे द्वारा अन्य प्राणियों को सताने व उनकी हिंसा का ही परिणाम है |
     मनुष्य अपने जीवन को बचाने के लिए राजपाट सुख वैभव व स्वजन परिवार को भी छोड़ने  हिचकिचाता है | जीवन प्राणी को इतना प्यारा है | अतः जीव-हिंसा का पाप पृथ्वी के समस्त ऐश्वर्य के दान करने से भी कटा नहीं जा सकता है | अहिंसा, दया, परोपकार ये गुण हमारी आत्मा की रक्षा मातृवत सदैव करते है |
       संसार रूपी निर्जन वन में भटकती जीवात्मा के लिए अहिंसा अमृत तुल्य जल स्रोत है| दुःख रूपी दावानल के शमन के लिये वः पुष्कर मेघ स्वरुप है | पुनर्जन्म के रोग को मिटाने की रामबाण औषधि है |
      सभूम, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती, श्रेणिक, कोणिक आदि राजा व कालसोरिक कसाई आदि  जीवात्मा हिंसा, क्रूरता के कारण नरकगति को प्राप्त हुई एवं नानाविध दुःख के अथाह सागर में गोते लगा रहे है | सुलसा, दमनक, हरिबल, यशोधर आदि की आत्मायें अहिंसा पालती हुई स्वर्गादि शुभगति को प्राप्त हुई |
     तीर्थंकर परमात्माओं ने अहिंसा व्रत को सर्वोत्कृष्ट बताया है | अतः ग्यारह व्रतों को इस व्रत के पोषक के रूप में बतलाये है | अतः प्रत्येक श्रावक को यथाशक्ति अहिंसा व्रत के पालन की प्रतिज्ञा लेनी चाहिये | विश्व के सब जीवों की अहिंसा का नियम तो अहिंसा महाव्रत धारी पूज्य मुनि भगवंत ही ले सकते है किन्तु हम गृहस्थ भी एक अंश तक अहिंसा का पालन कर सकते है |
    किसी भी जीव को हानि नहीं पहुँचाना, उस पर किसी भी तरह का अत्याचार न करना यह पूर्ण दया है | गृहस्थ पूर्ण दया के सोलहवे भाग की दया का ही पालन कर सकता है | त्रस व स्थावर दो तरह के जीव विश्व में है इन दोनों तरह के जीवों की रक्षा करना पूर्ण अहिंसा है | इसमें से गृहस्थ केवल सवा विश्वे अहिंसा का ही पालन कर पाता है | इसको निम्नलिखित तालिका द्वारा समझ सकते है -

 हिंसा
1. त्रस, स्थावर जीवों की हिंसा करना ...... 20 विश्व हिंसा 
2. अगर स्थावर जीवों का बचाव न करे ....... 10 विश्व हिंसा 
3. गृहस्थ अपराधी त्रस जीवों को न बचाये ....... 5 विश्व हिंसा 
4. गृहस्थ प्रारम्भिक कार्यों में आवश्यक समय में निरपराधी जीवों को नहीं बचाता ...... 2.5 विश्व हिंसा 
5. विशेष समय में विशेष कारण वश त्रस जीवों को हानि पहुँचाना ...... 1.25 विश्व हिंसा  
  अहिंसा

1. त्रस व स्थावर जीवों की पूर्ण रूप से रक्षा करना। ....... 20 विश्व अहिंसा
2. केवल त्रस जीवों की रक्षा करना 10 विश्व अहिंसा
3. निरपराध त्रस जीवों की रक्षा करना 5 विश्व अहिंसा 
4. कामकाज के समय निरपराध त्रस जीवों की रक्षा करना 2.5 विश्व अहिंसा 5. विशेष समय भी यथाशक्ति जीवों को बचाना 1.25 विश्व अहिंसा      
उपरोक्त तालिका का वर्णन निम्न प्रकार से है -
1.  गृहस्थ स्थावर जीव (मिट्टी, पानी, वायु और वनस्पति के जीव) की रक्षा करने में असमर्थ है | हर घर में चूल्हा, चक्की, ओखली व पानी के घड़े रहते है | खाने के लिये सब्जियाँ बनाई जाती है | मकान बनाने में, खेतीबाड़ी करने में स्थावर जीवों की पूर्ण रक्षा का नियम लेकर नहीं चलाई जा सकती है | अतः श्रावक मात्र त्रस (हिलते, डुलते) जीवों की रक्षा के नियम ले सकता है | अतः उसका अहिंसा व्रत पालन का सामर्थ्य आधा याने 10 विश्वे ही रह जाता है |
2. चलते फिरते त्रस जीव अपराधी व निरपराधी दो भागों में विभक्त किये जाते है | गृहस्थ के लिये अपराधी जीवों को बचना संभव नहीं है क्योंकि इससे उसे अपने सांसारिक कार्य में बाधा पड़ती है | चोर, व्यभिचारी, बेईमान आदि प्राणियों को दण्ड देना व दिलाना पड़ता है | ऐसा न करने पर गृहस्थ धर्म के पालन में हानि होने की संभावना रहती है व लोक व्यवहार बिगड़ जाता है | यदि कोई राजा अथवा राजकर्मचारी अपराधियों को दण्ड न देकर क्षमा करदे तो उसका न्याय तथा प्रबंध किसी तरह स्थिर नहीं रह सकता है | अन्याय बढ़ जाये तथा अत्याचारी व्यक्ति लोगों पर अत्याचार करने लग जाये | अतः मात्र निरपराधी जीवों की रक्षा ही शेष रही | इसमें से पांच विश्वे कम हो गये, शेष सिर्फ पांच विश्वे रहे | श्रावक के अहिंसा व्रत में अपराधियों को दण्ड देने की छूट है | इससे गृहस्थ धर्म भी स्थिर रह जाता है और नियमों पालन भी हो जाता है | 

3. गृहस्थ संसारिक कामकाज में नीरपराध जीव की भी हिंसा किया करता है, कृषि कार्य, कुआं खुदाई, मकान निर्माण आदि कार्यों में जो हिंसा हो जाती है | घोड़ा, बेल आदि की सवारी, उन पर बोझ लादने आदि में भी जीवो को दुख होता हे | इसी तरह अनेक व्यापार-व्यवसाय के कामों में गृहस्थ से निर्दोष जीवो की हिंसा होती है | अत: शेष 5 विश्वो में भी पचास प्रतिशत ही दया का पालन होता है | अत: श्रावक से अढाई विश्व दया का पालन ही शेष रह गया |

4. ऐसे ही गृहस्थ बहुत है जो कामकाज के बिना भी निर्दोष जीवो को हानि पहुंचाते है और किसी निर्दोष को ही चोर या शत्रु मान लेता है किसी पूर्व अपराधी को जो अब सुधर गया है पर बिना कारण शकर उसे दंड दिलाते हैं घुड़दौड़ व अन्य पशु पक्षियों के खेल खिलवाड़ करवाना अपने पुत्र पुत्रियों को पढ़ाते समय या बुराई से रोकने के लिए प्रताड़ना करना अपने पशु पक्षियों के घावो को ठीक करने के लिए उनमे कृमि-किटो को दवाई लगाकर नाश आदि कर हिंसा की भावना नहीं होने पर भी गृहस्थ को करने पडते वह | इस करण अढाई विश्वे की अहिंसा का पचास प्रतिशत याने सवा विश्व की अहिंसा का ही गृहस्थ पालन कर सकता है |

अतः सर्व विरति साधु-भगवन्तों की तुलना में गृहस्थ सोलहवें हिस्से की दया अथवा अहिंसा ही पाल सकता है | गृहस्थ के लिए आवश्यक है कि वह निरपराध त्रस जीवों की हिंसा बिना काम के अथवा किसी विशेष कारण के बिना, जान बूझ कर नही करे, एवं इस तरह की हिंसा करने वालों को भला न जाने |

अहिंसा व्रत के अतिचार

इस व्रत में पांच दोषों का लगना सम्भव है इन दोषों से बचने के लिए श्रावक को अत्यंत सावधान रहने की आवश्यकता है | अतिचार के लगने से व्रत खंडित तो नही होता किन्तु उस पर उचित ध्यान देकर प्रायश्चित न करने पर व्रत के पालन में ढिलाई आ जाती है | और यदा कदा व्रत का भंग भी हो जाता है | अतः शास्त्र कारों की आज्ञा है कि नित्य प्रातः हम अपने जीवन सम्बन्धी कार्यों का पर्यवेक्षण करते रहे | यदि कभी कभार जान अनजान से कोई दोष लग जाय तो उसे सुधारने का यत्न किया जाना चाहिए | अपने किये दोष के लिए पश्चाताप तथा आगे से उस दोष को दूर रखने का नियम लेना चाहिए | इस तरह की विशुद्ध भावना रखने पर मन प्रशांत होता है व किसी प्रकार की भूल की भविष्य में संभावना नही रहती है | दोनों समय प्रतिक्रमण करने का विधान अतिचारों की आलोचना के लिए ही बनाया गया है | अपने कार्यों में सावधानी रखते हुए व उन पर सूक्ष्म दृष्टि रखे तो धर्म ध्यान में मन लगा रहता है व व्रत खण्डित नही होता |

अहिंसा व्रत के पांच अतिचार निम्नानुसार है :-

1. तीव्र क्रोध के वशीभूत होकर प्राण-हानि का विचार रखे बिना किसी जीव को निर्दयता व क्रूरता से पीटना |

2. अकारण क्रोध वश किसी जीव की देह में दाग लगाना, अस्त्र-शस्त्र घोपना अथवा मर्म में छेद करना |

3. किसी प्राणी से शक्ति से अधिक बोझ उठवाना अथवा शक्ति उपरांत काम लेना |

4. क्रोध में आकर अकारण किसी जीव के मर्म स्थल पर प्रहार करना जिससे उस जीव की मृत्यु हो जाये |

5. अपने आश्रय में रहने वाले प्राणियों को भूखा प्यासा रखना, सर्दी-गर्मी से उनकी रक्षा न करना, असमय काम लेना, रोग की अवस्था मे उनकी चिकित्सा आदि न करवाना आदि अहिंसा व्रत के अतिचार है | मानवीय कर्तव्यों को पूरा न करना भी अतिचार है |

नोट- इनके अलावा धर्म प्रेमी गृहस्थ को पानी, वायू, अग्नि और वनस्पति का अनावश्यक, अकारण प्रयोग नही करना चाहिए | आज विज्ञान भी मान चुका है कि इनमें जीव है | श्रावक होकर जीवों को व्यर्थ हानि क्यों पहुँचावे ? जिनेश्वर परमात्मा का धर्म सब जीवो की रक्षा करना सिखाता है |

(2) स्थूल मृषावाद विरमण व्रत